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My life....my one day story
My routine...
My day started as usual, got up at 07 o'clock. Fresh came as a bath, my mother kept tea and chips in my room. Today, I did not even want to turn on the computer. Today, it has been about 41 days that we have not been staying in the house. Then I took the book of my Nirankari Satsang and when the whole day had passed I did not know that I had kept the book just to eat food. The name of the book is Anand Sagar.In this, a very good story increases knowledge and changes our thinking and how our mind moves, thinks, tells all. I am going to write a very short story from this lovely Nirankar book here, Dhan Nirankar Ji.
On seeing a bad old lady, Narada Muni said kindly - Come to me, I will remove your hump with the help of yoga. The old lady folded her hands and said - If you start pitying me, then let my hump stay like this, but also hump in the waist of my neighbors. Surprised Narada Muni asked - what good will you get from the hump of other person? The old lady said - I will be happy to see them bowing their waist. This is the jealousy that the old lady forgets her happiness and takes interest in the misery of others. Out of jealousy, Manusya gives up the power to understand the path of righteousness and conscience. In the mind, a variety of distorted mental deprivations arise from the idea of jealousy.
Where is the name of Nirankar, what is the work of tension there.
There is no subject nor disorder in the place in which it is settled.
Where love is love, where there is dispute.
Welcome to each other, happy family home.
(yourSharad)
धन निरंकार जी
रोज की तरह ही मेरे दिन शुरू हुवा 07 बजे उठा फ्रेश हुवा नहा के जैसे आया मेरे कमरे में माँ चाय और चिप्स रख दी। आज मेरा मन कंप्यूटर ऑन करने का भी मन नहीं कर नहीं कर था . आज लगभग 41 दिन हो गए घर में रहते हुवे कहि नहीं गया। फिर मै अपने निरंकारी सतसंग की किताब लिया और पूरा दिन ही कब बीत गया मुझे पता नहीं चला सिर्फ खाना खाने के लिए मैंने बुक रखा था। किताब का नाम है आनन्द सागर।
इसमें बहुत अच्छी अच्छी कहानी ज्ञान वर्धक और अपने सोच को बदलने और हमारा मन कैसे चलता है ,सोचता है, सब बताता है। एक बिलकुल छोटी कहानी इस प्यारी निरंकार किताब से यहाँ मै लिखने जा रहा हूँ ,धन निरंकार जी।
एक कुबड़ी बुढ़िया को देखकर नारद मुनि कृपालु हुए बोले - मेरे पास आव, मै योग- बल से तुम्हारा कूबड़ दूर कर दूंगा। बुढ़िया ने हाथ जोड़कर कहा - दया ही करने लगे हो तो मेरा कूबड़ तो यूँ ही रहने दो पर मेरे पड़ोसियों की कमर में भी कूबड़ दो। आस्चर्यचकित नारद मुनि ने पूछा - दुसरो के कूबड़ से तुझे क्या लाभ होगा भला? बुढ़िया ने कहा - मैं उन्हें कमर झुकाकर चलते देखकर सुख पाऊँगी। यही है ईर्ष्या कि बुढ़िया अपने सुख को भूलकर दुसरो के दुःख में दिलचस्पी लेती है। ईर्ष्या से उन्मत होकर मनुस्य धर्मनिति तथा विवेक का मार्ग्य सोचने समझने की शक्ति त्याग देता है। मस्तिक में ईर्ष्या के विचार से नाना प्रकार की विकृत मानसिक अवस्थाव की उत्पत्ति होती रहती है।
जहाँ निरंकार का नाम, वहां टेँशन का क्या काम।
जिस घट में बसा निरंकार, वहां न विषय न विकार।
जहाँ प्यार ही प्यार, वहा कहाँ तकरार।
करो इक दूजे का सत्कार ,सुखी हो जाय घर परिवार।
(आप का शरद )
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