************ Life and Earth ***************
(English language) ✍️ How much do you understand your life and this earth.
Down side in Hindi Language..Thank you
:- Everyone thinks and understands according to their own right. * Souls freed from ego become divinities. These souls are detached - they do not want anything, even lack of devotion or knowledge, they do not really need them because they too seem to despise. It remains rejoicing in the state it is in without wishing, on the efforts of the five levels below, it gives information about itself and its folk or can say that it is eager to give information. Because it satisfies their ego. But even praying to the sixth level soul is ineffective.
The information about Brahmlok is dependent on the blessings of those souls, as soon as these souls want to be pleased, greed is generated in them, thus complete information like the whole cannot be obtained, yet where nothing is there for This much information is enough.
The journey of Brahma lok starts with the words of the great scientist Einstein, "All the substances of the world fall under these four periods of time, speed and matter and reason. All of these are mere existence. There is no such thing as the ultimate truth. Man's bond with him is his terrible mistake. There is neither time nor space, nor motion, nor any reason or limitation in the world. It is the product of the four brains and as long as we are restricted by them then the realization of the ultimate truth. The final truth is that which is not bound by these fours, but affects them, whatever it is - as it is, the mind is a multidimensional multi-dimensional element above these four; if it is freed from these four, then the ultimate The situation can be well known. That is the ultimate truth of the world - God, the Most High, Mocha or Heaven and the state of liberation. "
When Einstein was asked that we feel these times and things, we see, what is this all about - then he replied that all these are sapechita or maya. Like we have assumed that the time from sunrise to sunset is 24 hours. Time is not a physical object. It is a measure of the period between two phenomena which can never be eternal truth. When we are on the moon, the time between sunrise to sunset will have to be considered for about 100 hours. Similarly, it will be different on every planet and satellite.
The year of 365 days on Earth has been considered if we are inhabiting other planets, then the time of year will have to be considered as different, like 88 days on Mercury, 687 days on Mars and 10768 days on Saturn. The measurement of time will be different on other stars, so time is not a constant or eternal object. Why not consider time as a unit of time from where the creation started, to where the creation will end? Because the last truth is the same two events. The time of our birth and death is only in the light of this huge time, so until we know that last truth, all the measurements related to time and the actions that affect them are all wrong.
In the same way, no place is true for us, the place has no meaning except when we recognize things, in the same way that time is nothing but the experience, in the same way, the place is nothing but the imaginary object generated by our mind. It helps to understand and know their system.
We consider the imagery of the finished place to be true. Otherwise what is the place other than a certain way of atoms? The atom is electron-like, the electron keeps extracting a type of energy which is in the form of a wave, the object whose electrons have become of slow motion appears equally gross. It depends on the ability of our brain to see, if we are sitting in a body like the Sun, except the Earth, then the Earth will not see anything other than a kind of deformation, so the location is also a visible form of the structure of things. As far as motion is concerned, the knowledge of it is also the limit of our relative intelligence. Right now we say that our room is stable because we have the right to say this because our room is moving along with the earth. . If two trains are running at the same speed and same direction at one place, then the riders of both the trains will feel stable but one train is going 45 km east and the other is going west at the same speed. So, the place where both the vehicles will be together will experience 10 km of each other, this proves that the speed is also the ultimate speed because we have just experienced that despite sitting on the trains running at the same speed Also, once is constant and once is twice the speed.
Regarding the cause of substances, we are completely and indirectly. Some elements, whether they are called earth, water and sky, or hydrogen, oxygen or cobalt, together with them, the formation of physical substances continues to deteriorate. Any of our organic or inorganic substances There are limits to the chemical interaction of different chemical elements. But when we consider the last piece of matter, the structure of the 'atom', which participates in chemical activity, then we find that there is only difference of charge in the whole matter, otherwise the original element is something else. Similarly, the powers should also be in one last position.
Because god is eternal is formless
Thank you - Dhan Nirankar Ji
Your Sharad is this side .........Thank you
be happy make other happy
✍️ (your Sharad) .. Dhan Nirankar Ji.
************ Life and Earth ***************
(Hindi Language) ✍️ आप अपनी जिंदगी को और इस पृथ्वी को कितना समझते है।
हर कोई अपने हिसाब से सही सोचता है और समझता है।
* अहंकार से मुक्त आत्माएं दिव्यात्माएं बनती है। ये आत्माएं निस्पृह होती है - इन्हे किसी भी वस्तु की चाह नही रह जाती है यहां तक की न भक्ति की कमी महसूस होती है न ज्ञान की वास्तव में इन्हे इनकी आवश्यकता भी नहीं रह जाती क्योकि इन्हे मोछ भी तुच्छ लगने लगता है। ये बगैर कामना के जिस अवस्था में है ,उसी में आनन्दित रहती है निचे के पांच स्तरों की आत्माये प्रयत्न करने पर अपने तथा अपने लोक के बारे में जानकारी देती है या कह सकते है की जानकारी देने को लालायित रहती है। क्योकि इससे उनके अहंकार की तृप्ति होती है। किन्तु छठे स्तर की आत्माय प्रार्थना करने पर भी असरहीन होती है।
ब्रह्मलोक के बारे में जानकारी उन आत्मावो की कृपा पर ही आश्रित है जैसे ही ये आत्माएँ कृपा करना चाहती है वैसे ही इनमे लोभ उत्पन्न हो जाता है इस प्रकार पूरी जैसी की तैसी जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकती फिर भी जहां कुछ भी नहीं वहाँ के लिए इतना ही जानकारी बहुत है।
ब्रह्म लोक की यात्रा महान वैज्ञानिक आइन्स्टीन के शब्दो इस उक्ति से प्रारम्भ करते है " संसार के सभी पदार्थ समय ,गति और पदार्थ और कारण इन चारो के अंतर्गत ही आते है इन सभी का अस्तित्वा केवल सापेछ है। अंतिम सत्य जैसी कोई चीज़ नहीं है। मनुष्य का इनसे बंधन उसकी भयंकर भूल है संसार में न तो समय अस्तित्व है , न स्थान का ,न गति का और न किसी कारण या परिडाम का। ये चारो मष्तिष्क की उपज है और जब तक हम इनसे प्रतिबंधित है तब तक अंतिम सत्य की अनिभूति नहीं कर सकते। अंतिम सत्य वह है जो इन चारो से बंध कर नहीं बल्कि इन्हे ही प्रभावित करता है जो भी है - जैसा भी है , मस्तिस्क इन चारो से ऊपर का एक बहुविमतीय मल्टी - डायमेंसल तत्वा है उसे इन चारो से मुक्त कर दिया जाय तो परम स्थिति को अच्छी तरह जाना जा सकता है। वही संसार का अंतिम सत्य - परमात्मा ,परमपद ,मोछ या स्वर्ग और मुक्ति की स्थिति है "
जब आइन्स्टीन से पूछा गया कि यह समय और पदार्थो की हमें अनुभूति होती है ,दिखाई देते है ,यह सब क्या है तब - उन्होंने उत्तर दिया की ये सभी सापेछता या माया है। जैसे हमने यह मान लिया है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय 24 घंटे का होता है समय कोई भौतिक वस्तु नहीं है यह तो दो घटनाव के बीच की अवधि की माप है जो कभी भी शाश्वत सत्य नहीं हो सकता है। जब हम चन्द्रमा पर रहेंगे वहाँ सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच का समय लगभग 100 घंटे का मानना पड़ेगा इसी तरह हर ग्रह और उपग्रह पर यह भिन्न भिन्न होगा।
पृथ्वी पर 365 दिन का वर्ष माना गया है यदि हम अन्य ग्रहों पर निवास कर रहे होंगे तो वर्ष का समय भिन्न भिन्न मानना पड़ेगा जैसे बुध पर 88 दिन का ,मंगल पर 687 दिनों का तथा शनि पर 10768 दिनों का मानना पड़ेगा। अन्य तारो पर समय की माप भिन्न होगी इसलिए समय कोई स्थिर या शास्वत वस्तु नहीं है सृष्टि जहाँ से आरम्भ हुई है वहां से लेकर सृस्टि जहाँ समाप्त होगी वहाँ तक के समय को समय की इकाई क्यों न माने ? कारण कि अन्तिम सत्य तो यही दो घटनाए है हमारे जन्म और मृत्यु का समय इस विशाल समय की सापेछता ही तो है इसलिए जब तक हम उस अन्तिम सत्य को नहीं जान लेते ,समय संबधित सभी माप और उनको प्रभावित करने वाले कार्य सब गलत है।
इसी तरह हमारे लिए कोई भी स्थान सत्य नहीं है हमारे द्वारा वस्तुओ को पहचानने के अतिरिक्त स्थान का कोई अर्थ ही नहीं है जिस तरह समय के अनुभव के अतिरिक्त कुछ नहीं है उसी तरह स्थान हमारे मास्तिस्क़ द्वारा उत्पन्न काल्पनिक वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं है वस्तुओ को समझने एवं उनकी व्यवस्था जानने में सहायता मिलती है।
चुकी स्थान की कल्पना को हम सत्य मान लेते है। अन्यथा स्थान एक निश्चित तरीके के परमाणुओ के अलावा और है भी क्या ? परमाणु इलेक्ट्रानमय है इलेक्ट्रान एक प्रकार की ऊर्जा निकालता रहता है जो तरंग के रूप में होती है जिस वस्तु के इलेक्ट्रान मन्द गति के हो गए है वह उतनी ही स्थूल दिखाई देती है। यह हमारे मस्तिष्क के देखने की छमता पर निर्भर करता है यदि पृथ्वी को छोड़ कर हम सूर्य जैसे पिण्ड में बैठे हो तो पृथ्वी एक प्रकार के विकरण के अतिरिक्त और कुछ न दिखाई देगी इसलिए स्थान भी वस्तुओ की संरचना का सापेछ रूप है उसकी यथार्तता से परम अवस्था पर ही हो सकती है जहाँ तक गति की बात है उसका ज्ञान भी हमारी सापेछ बुद्धि का ही परिडाम है अभी हम कहते है की हमारा कमरा स्थिर है ऐसा कहने का हमें इस लिए अधिकार है क्योकि पृथवी के साथ साथ हमारा कमरा भी घूम रहा है। यदि एक स्थान पर दो गाड़िया एक ही गति और एक ही दिशा में दौड़ रही हो तो दोनों गाड़ियों के सवार अपने आप को स्थिर अनुभव करेंगे किन्तु एक गाड़ी 45 किलोमीटर की गति से पूरब की ओर तथा दूसरी गाड़ी इसी गति से पश्चिम की ओर जा रही है तो दोनों गाड़िया जिस स्थान पर साथ साथ होंगी वहां एक दूसरे की गति 10 किलोमीटर अनुभव होगी इससे यह सिद्ध होता है की गति भी एक परम गति की सापेछ है क्योकि अभी हमने अनुभव किया की समान गति से चलने वाली गाड़ियों पर बैठे रहने के बावजूद भी एक बार अपने को स्थिर और एक बार दुगनी गति का मान होता है।
पदार्थो के कारण के सम्बन्ध में भी हम पूर्णतया तथा सापेछ है थोड़े से तत्व चाहे उन्हें पृथ्वी ,जल और आकाश कहे या हाइड्रोज़न ,ऑक्सीजन या कोबाल्ट कहे ,इन्ही से मिलजुल कर भौतिक पदार्थो का बनना बिगड़ना जारी रहता है हमारे कोई भी कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थ विभिन्न रासायनिक तत्वों की परस्पर रासायनिक क्रिया का ही परिडाम होते है। परन्तु जब हम पदार्थो के अंतिम टुकड़े 'परमाणु 'की संरचना ,जो रासायनिक क्रिया में भाग लेता है पर विचार करते तब पाते है की सम्पूर्ण पदार्थो में केवल आवेश का अंतर होता है अन्यथा मूल भुत तत्वा कोई और ही है पदार्थ शक्तियो के परिवर्तित रूप है इसी तरह शक्तियों की भी एक अंतिम स्तिथि से होना चाहिये। इसका आभास प्रकाश की क्वाण्टम थियूरी से होता है।
मनुष्य के शरीर में इस लोक से सम्बंधित सहस दल चक्र या सहस्रार है यह कपाल में ऊपर की तरफ एक गड्ढे जैसा होता है जिसके ऊपर चमड़ी चढ़ी होती है बच्चों में यह चक्र बहुत आसानी से देखा जा सकता है इसमें स्पन्दन होता रहता है यहां ध्यान लगाने पर ऐसा लगता है जैसे कमल की हज़ारों पंखुड़िया चारों तरफ एक चक्र में व्यवस्थित है , इसलिए इसका नाम सहस्रदल चक्र रखा गया है। मनुष्य शरीर में मनुष्य - लोक ,देवलोक तथा ब्रहम लोक के संवाद केवल सहस्रचक्र के द्वारा ही प्रवेश करते है और इन लोको के लिए यही से संवाद भेजे जा सकते है यह अंतिम चक्र है जिसके सक्रिय होने पर मनुष्य के शरीर में स्थित आत्मा शरीर के बाहर निकलने की तैयारी करने लगती है जो आत्माय अमरतत्वा प्राप्त कर लेती है उन्हें ब्रह्म शब्द से सम्बोधित किया जाने लगता है जैसे ही सहस्रार चक्र सक्रिय होता है वैसे ही उस व्यक्ति के चारो तरफ हज़ारों या अनजाने रूप में जो भी सम्पर्क में आ जाता है वह कारण न जानते हुवे भी आनन्द विभोर हो जाता है। पलीते में लगे आग की तरह जैसे ही सहस्रार चक्र ,सक्रिय होना प्रारम्भ करता है , वैसे ही अंत तक स्वतः ही पहुँचता जाता है बीच में यह क्रिया धारक के चाहने पर भी नहीं रुक सकती। प्रारम्भ में तो सहस्रार चक्र में पायी जाने वाली कमल की पंखुड़ियों जैसे संरचनाव से सुगन्ध निकलती है धीरे धीरे स्वतः ही कमल की लाल पंखुडिया दीपक जैसे आकार में बदलती जाती है जिनमे घी जैसा पदार्थ भरा रहता है और जलती हुई बाती की सहायता से मन्द ,शीतल एवं सात्विक प्रकाश फैलने लगता है ,जो अत्यन्त ही मनोहारी लुभावना लगने लगता है इस लोक या परलोक की कोई भी वस्तु या उपलब्धि आनन्दित रहने की प्रक्रिया में अन्तर नहीं ला सकती - देवतागड़ भी स्तुति करने लगते है।
यद्यपि कि इससे भी वह अछूता ही रहता है क्योकि इस प्रक्रिया से धारक का सम्पर्क ब्रह्मलोक से हो जाता है जहां आनन्द के सिवा और कोई चीज़ है ही नहीं जब ये दिव्यात्माये ईश्वर की मर्जी से लोक कल्याण का कार्य करने के लिए तैयार होती है तभी कोई अन्य भाव इन्हें स्पर्श कर पाते है धीरे धीरे प्रकाशमान दीपक अनन्तकाल तक , जब तक की ईश्वर की इच्छा होती है तब तक जलते रहते है और अन्त में सम्पूर्ण दीपक ,सम्पूर्ण शरीर तथा अन्य अस्तित्वा की वस्तुवे सुच्छमाती सूछ्म रेणु नामक अत्यंत छोटे कड़ो में बदलकर ईश्वर स्वरुप हो जाते है ब्रहम स्तर की दिव्यात्माओँ को भी अपने रहने के अस्तित्वा का ज्ञान रहता है और जैसे ही सम्पूर्ण अस्तित्वा समाप्त हुवा ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है या यो कहाँ जाय कि ईश्वर में मिल जाता है या कहे ईश्वर हो जाता है।
ब्रह्मलोक में तंत्र ,मंत्र और यंत्र ,पूजा - पाठ ,भजन - कीर्तन ,भोग -उपभोग ,भक्ति - ज्ञान ,वैराग्य इत्यादि सभी असरहीन है उपर्युक्त उपायों या तथ्यों से ब्रहमलोक का स्पर्श भी असम्भव है यहां तक की ईश्वर की स्तुति गाने वाले गायत्री मंत्र की पहुंच भी केवल देवलोक तक ही सिमित होती है। हमारे मस्तिष्क का लगभग तीन प्रतिशत भाग चेतन ,लगभग सात प्रतिशत भाग अचेतन तथा नब्बे प्रतिशत भाग सुसुप्त अवस्था में रहता है।
सुषुप्त इसलिए कहना पड़ता है क्योकि इसके बारे में हमे किसी प्रकार की जानकारी नहीं है चेतन मस्तिष्क से दैनिक क्रियाएँ ,अचेतन से असाधारण क्रियाए और सुषुप्त से विशेष क्रियाए सम्पन्न होती है। अधिकांश पर लौकिक क्रियाए विशेष ही मानी जाती है जैसे विभिन्न जन्मो के संस्कार बिज़ रूप में संगृहीत रहते है ये संस्कार पिछले और इस जन्म में किये गए कर्मो के सूछ्म रूप होते है। इन्ही के अनुसार ही अगला जन्म प्रेरित होता है ,जैसे एक व्यक्ति धन लोलुप होता है जबकि दूसरा व्यक्ति धन से निस्पृह होता है जबकि दोनों के मस्तिष्क में वही सफ़ेद और भूरे पदार्थ होते है यह भिन्न ता संस्कार के द्वारा ही होती है धन से निस्पृह व्यक्ति पिछले किन्ही जन्मो में धन से तृप्त रह चूका होगा। वही तृप्ति का संस्कार बिज़ रूप में संगृहीत रहता है। संस्कार का निरूपण ,रखरखाव और उचित समय पर अभिव्यक्ति दिव्यात्माओ द्वारा ही सम्पादित होता है इसलिए तो यहां बेईमानी ,लालच या अन्य कोई भी प्रयास सफल नहीं होता है देवलोक तक पूजापाठ ,भजन -भाव ,मंत्र - तंत्र तथा अन्य विधियों द्वारा परिवर्तन संभव हो जाता है देवता प्रस्न या नाराज होकर वरदान या श्राप देते है इनकी सहायता से जीवन में थोड़ा बहुत परिवर्तन आ जाता है यह कार्य भी देवगडो द्वारा ब्रह्म की इच्छा अनुसार संस्कार का फल प्रदान करने के लिए कराया जाता है इस प्रकार कोई भी आत्मा अपने संस्कारो का भोग किये बिना बच नहीं सकती।
ब्रह्मलोक में समय होता ही नहीं वहां पर एक सेकण्ड और करोड़ वर्ष में कोई अंतर नहीं है सभी दिव्यात्माऐं समय की सीमा से परे होती है समय का मूल्यांकन देवलोक तक ही होता हैप्रत्येक देवता की अपनी एक आयु होती है वे उससे ज्यादा या कम नहीं जीवित रह सकते है क्योकि उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। दिव्यात्माओं का जीवन अनन्त होता है ये ईश्वर की मर्जी के मुताबिक जीती है और विरोहित हो जाती है ये चाह कर भी निचे के लोको में नहीं जा सकती। जरूरत भी नहीं पड़ती क्योकि उनके और ईश्वर के बीच में केवल एक पार दर्शक भर रह जाता है। आर पार की चीजे भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।
चुकी ईश्वर सर्वव्यापी है इसलिए प्रकारान्तर (एक तरह )से भी सर्वव्यापी ही हो जाती है किन्तु आवश्य्कता पड़ने पर सभी देवगण नीचे के विभिन्न लोको में शरीर धारी के रूप में जा सकते है। जैसे रामावतार में अधिकांश बन्दर - भालू और कृष्णा वतार में अधिकांश गोप और गोपियाँ ,देवी और देवताव के ही प्रतिरूप थे। देवी और देवता अपने अलौकिक गुणों युक्त होते है तभी तो ऐसे -2 कार्य कर डालते है जो शरीर धारी नहीं कर पाते है। समय हीनता या समय निरपेछता की कल्पना हम आप नहीं कर सकते क्योकि जन्म से लेकर मृत्यु तक हम सभी समय सापेछ जिंदगी जीते है समाधी की चरम अवस्था में ही उसकी अनुभूति हो सकती है सही मानेंगे तो आनन्द समय रहित जीवन में ही फलित होता है कुछ बनने की इच्छा समाप्त हो जाना ही ब्रह्मतत्व है।
यहाँ तक की ईश्वर को प्राप्त करने या बनाने की इच्छा भी ब्रह्म बन्ने में बाधक है। ये ब्रह्म सृष्टि क्या ,सृष्टि उत्पन्न करने वाले ,पालन करने वाले और संहार करने वाले को भी पैदा करने और नष्ट करने में सछम होते है ये हजारों योनियों के समाप्त होने के बाद भी जस के तस पड़े रहते है ये देवताव के तरह सबका शुभ करने के लिए भी उतावले नहीं रहते क्योकि इनके स्मरण मात्रा से ही सभी को सही रास्ते का भान हो जाता है।
इस लोक में भी दैत्य होता है ब्रह्मतत्व की अंतिम अवस्था आते आते सभी सकारात्मक और नकारात्मक तत्व अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाते है एकरात्मक तत्व को शिव और नकारात्मक तत्व को शक्ति कहा जाता है साधना की पराकाष्ठा पर मनुष्य के शरीर में सहस्त्रार चक्र में शिव शक्ति दर्शनीय रूप में उपस्थित हो जाते है शिव अर्थात कल्याणकारी ,शक्ति अर्थात ऊर्जा ,इस प्रकार ऊर्जा यहाँ केवल कल्याण कारी कार्यो के लिए होती है।
यही कारण है कि यहां पर पापी ,पुण्यात्मा ,सत्वरज एवं तम ईश्वर ,जीव इत्यादि का भेद मिट जाता है एक मात्र भेद रह जाता है ,सकारात्मक तत्व शिव के रूप में और नकारात्मक तत्व शक्ति के रूप में - जैसे ही यह भेद समाप्त होता है। आगे अनन्त तक कुछ भी नहीं होता। देव्त जब तक रहता है तब तक संसय बना रहता है अर्द्ध नारीश्वर की कल्पना किसी धर्म में नहीं है। अर्द्ध नारीश्वर में आधा भाग पुरुष और आधा भाग नारी का होता है। यह दो या एक बनने की प्रक्रिया ही पहली अवस्था है कभी पुरुष के रूप में कभी स्त्री के रूप में तथा कभी अर्ध नारीश्वर के रूप में दिव्यात्मा दिखाई पड़ती है। उसी का प्रतिरूप शिवलिंग बनाया गया है।
पुरुष और स्त्री मिलकर जो रचना का कार्य करते थे उससे अनन्त गुणा सम्भावना वाला एक में मिल जाने के बाद हो गया। लौकिक जगद में भी इसका एक उदाहरण है रज और वीर्य के एक एक अणु अलग अलग एक भी नहीं है और न ही एक भी बनाने की छमता रखते है।किन्तु जब ये आपस में मिल जाते है तब भ्रूण में बदल जाते है और भ्रूण कम से कम एक की रचना तो करता ही है आवश्यकता पड़ने पर दो,चार,दस,बीस ,हजार ,लाख - करोड़ या अनन्त भी बना सकते है भ्रूण से बनने वाली प्रत्येक कोशिका एक एक जीव पैदा करने में सछम होती है इसी तरह जब तक सकारात्मक और नकारात्मक तत्व अलग -2 है तब तक वे एक भी बनाने में सछम नहीं है। और जैसे ही वे एक बनतेहै ,उनमे ईश्वर सकारात्मक या नकारात्मक रूप में आ जाता है और फिर वे सृस्टि क्या सृष्टियो को बनाने वालो को पैदा करने में सछम हो जाते है।
विज्ञानं भी एक एक अणु दोनों को मिलाने के बाद ही किसी रूप या आकार दे सकता है।
स्थूल लोक से लेकर देवलोक तक यह सामान्य नियम है कि पहले शक्ति अर्जित की जाती है बाद में उसका उपयोग होता है जब की ऊर्जा अच्छे या बुरे कार्यो में होगी इसकी गारण्टी नहीं होती।स्थूल लोक में भोजन से शक्ति प्राप्त की जाती है आपने देखा होगा की लौकिक जगत में जहाँ भी भोजन और पानी पर्याप्त मात्रा में होंगे वहां जीवो की संख्या ,शारीरिक और मानसिक ताकत बढ़ जाती है प्रेतलोक में मृत आत्माओ के लिए श्राद ,तर्पण ,एवं पिण्डदान इत्यादि होता है जबकि सिर्फ उनके लिए प्राथर्ना कायदे से करना चाहिए क्योकि वह स्थूललोक नहीं है जो भी देंगे उनको मिल जायगा। भारत जैसे देश में जहां इस तरह के कार्य होते है प्रेतलोक की आत्माये सक्रीय होती है जो मनुष्यो को लाभ और हानि पहुँचाती है। यूरोपीय देश ,अरब देश तथा अन्य जगहों में ऊर्जा के अभाव में प्रेतआत्मायें निष्क्रिय एवं बलहीन हो जाती है इस प्रकार योरोपीय देशो में प्रेतलोक निष्क्रिय होने से आगे की धार्मिक यात्रा रुक जाती है जैसे कोई महत्वा पूर्ण पुल धवस्त होगया है यही कारण है की जिन आत्माओ को आगे की यात्रा जारी रखनी होती है वे भारत में ही जन्म लेती है। सूछमलोक धनात्मक और ऋणात्मक कणो का बना होता है उन सभी क्रियाओ से सूछ्म शरीर की ताक़त बढ़ती है जिनसे शरीर में उपस्थित तत्व धनात्मक और ऋणात्मक कणों म बदल जाते है -उपवास ,व्रत ,प्राणायाम और ध्यान इत्यादि से शुद्धि करण की प्रक्रिया तेज होती है।
तभी तो ध्यानस्थ व्यक्तियों के चारो ओर प्रभामण्डल दिखलाई पड़ने लगता है।
वाशना लोक में प्रेम क्रोध इत्यादि विभिन्न भावनाओ से ऊर्जा मिलती है जबकि देवलोक में ऊर्जा का स्रोत उपकार है। इन सभी लोको में पहले ऊर्जा प्राप्त की जाती है बाद में उसका उपयोग होता है ऊर्जा स्त्री वाचक और पात्र जहां ऊर्जा संचित होती है उसे पुरुष वाचक माना जाता है। इसलिए पहले स्त्री का बाद में पुरुष का नाम रखा जाता है। जैसे सीता राम ,राधेश्याम ,गौरीशंकर। .... इत्यादि।
किन्तु ब्रह्म्लोक में यह प्रक्रिया उलट रहती है जैसे - शिव शक्ति पहले पुरुष वाचक शब्द बाद में स्त्री वाचक शब्द इसका बहुत ही गहरा कारण है शक्ति पहले प्राप्त कर लेने के बाद उसका उपयोग सही या गलत दोनों होने की सम्भावना बनी रहती है यहाँ पहले यह निश्चित किया जाता है कि ऊर्जा कल्याणकारी कार्यो में ही खर्च की जायगी। तभी ऊर्जा प्राप्त हो पाती है।
इसलिए पहले पुरुष वाचक शब्द बाद में शक्ति स्त्री वाचक रखा गया है। इस प्रकार शिव शक्ति हमेशा कल्याणकारी कार्य ही करते है। कुछ लोग शिव शक्ति और गौरी शंकर को एक ही मानते है यह भ्रह्म है। गौरी शंकर देव स्तर की आत्माये है ये प्रश्न या नाराज होकर वरदान या श्राप दे सकते है। सबका उपकार करने के लिए लालायित रहते है। भजन - पूजन ,चढ़ावा इत्यादि से प्रसन्न रहते है यह संहार का कार्य कर सकते है। जबकि शिव शक्ति ब्रहम स्तर की आत्माये है ये प्रशन्न ओऱ नाराज नहीं होते है। भजन पूजन इत्यादि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ये कल्याण का कार्य करते है। इस प्रकार दोनों स्तर की आत्माओ में गुणात्मक अंतर है ब्रहम लोक में ऊर्जा का स्रोत सबका कल्याण या ब्रह्माण्ड स्वयं है जब तक ईश्वर की इच्छा ब्रह्माण्ड बनाये रखने की होती है तब तक शिव शक्ति रूप में विद्यमान है अन्यथा तिरोहित होकर ईश्वर में ही मिल जाते है।
*अंत में एक जटिल प्रश्न के साथ ब्रह्मलोक की यात्रा समाप्त की जाय *
जब सृस्टि उत्प्न्न हुई तब सभी आत्माये ईश्वर से निकलकर अस्तित्वा में आई। इस प्रकार सभी पवित्र शुद्ध और सवतंत्र हुई जैसे ही ये आत्माये ईश्वर से अलग होती है अधिकांश तो तो ईश्वर का स्मरण करते हुवे पुनः उसी में मिल जाती है। केवल कुछ आत्माये ईश्वर द्वारा पैदा किये सम्मोहन में फस जाती है ब्रह्माण्ड में जितनी भी शरीर धारी और आसुरी आत्माये उपस्थित है ये सभी भटकी हुई सम्मोहित आत्माये है।
इसलिए मनीषी जन पाप पुण्य के चक्र में नहीं पड़ते वे साछी भाव में पाप पुण्य दोनों को ही निस्पृहय भाव से देखा जाता है तभी ईश्वर की माया स्पस्ट दिखलाई पड़ती है ईश्वर कुछ को क्यों माया या सम्मोहन में डालता है इसे छुद्र बुद्धि या तर्क द्वारा देखने पड़ बड़ा अजीब लगता है। लगता है ईश्वर भी मायावी है और दुसरो से पाप कर्म करवाने में उसे आनन्द आता है इस प्रकार दुसरो के दुःख में सुखी होने वाले को क्या कहाँ जाय। . ?
* किन्तु रुकिए पहले आप अपनी पात्रता देखिये की इस प्रश्न के उत्त्तर के लिये अपनी पात्रता विकसित हो गयी है की नहीं *
:- आइये हम आप सभी काँटे से काँटा निकालने का भ्रम पाले ईश्वर द्वारा पैदा किये गये सम्मोहन को ईश्वर द्वारा ही निकालने का उपक्रम सोचे किन्तु हमेशा ध्यान रहे कि सूत्रधार तो वहीं है जब सूत्र धार ,सूत्र और कठ पुतली तीनों एक ही तत्व की बनी देखाई देने लगे तब आगे कुछ और देखने की आवश्यकता ही नहीं ,कुछ और आगे ,कुछ भी दिखाई ही नहीं पड़ेगा।
क्योकि ईश्वर तो अनन्त है निराकार है।
**********Only one true - Zero is true - Infinitive is true *********
✍️ धन निराकार जी (आप का शरद ) 🌈
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जब आइन्स्टीन से पूछा गया कि यह समय और पदार्थो की हमें अनुभूति होती है ,दिखाई देते है ,यह सब क्या है तब - उन्होंने उत्तर दिया की ये सभी सापेछता या माया है। जैसे हमने यह मान लिया है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय 24 घंटे का होता है समय कोई भौतिक वस्तु नहीं है यह तो दो घटनाव के बीच की अवधि की माप है जो कभी भी शाश्वत सत्य नहीं हो सकता है। जब हम चन्द्रमा पर रहेंगे वहाँ सूर्योदय से सूर्यास्त के बीच का समय लगभग 100 घंटे का मानना पड़ेगा इसी तरह हर ग्रह और उपग्रह पर यह भिन्न भिन्न होगा।
पृथ्वी पर 365 दिन का वर्ष माना गया है यदि हम अन्य ग्रहों पर निवास कर रहे होंगे तो वर्ष का समय भिन्न भिन्न मानना पड़ेगा जैसे बुध पर 88 दिन का ,मंगल पर 687 दिनों का तथा शनि पर 10768 दिनों का मानना पड़ेगा। अन्य तारो पर समय की माप भिन्न होगी इसलिए समय कोई स्थिर या शास्वत वस्तु नहीं है सृष्टि जहाँ से आरम्भ हुई है वहां से लेकर सृस्टि जहाँ समाप्त होगी वहाँ तक के समय को समय की इकाई क्यों न माने ? कारण कि अन्तिम सत्य तो यही दो घटनाए है हमारे जन्म और मृत्यु का समय इस विशाल समय की सापेछता ही तो है इसलिए जब तक हम उस अन्तिम सत्य को नहीं जान लेते ,समय संबधित सभी माप और उनको प्रभावित करने वाले कार्य सब गलत है।
इसी तरह हमारे लिए कोई भी स्थान सत्य नहीं है हमारे द्वारा वस्तुओ को पहचानने के अतिरिक्त स्थान का कोई अर्थ ही नहीं है जिस तरह समय के अनुभव के अतिरिक्त कुछ नहीं है उसी तरह स्थान हमारे मास्तिस्क़ द्वारा उत्पन्न काल्पनिक वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं है वस्तुओ को समझने एवं उनकी व्यवस्था जानने में सहायता मिलती है।
चुकी स्थान की कल्पना को हम सत्य मान लेते है। अन्यथा स्थान एक निश्चित तरीके के परमाणुओ के अलावा और है भी क्या ? परमाणु इलेक्ट्रानमय है इलेक्ट्रान एक प्रकार की ऊर्जा निकालता रहता है जो तरंग के रूप में होती है जिस वस्तु के इलेक्ट्रान मन्द गति के हो गए है वह उतनी ही स्थूल दिखाई देती है। यह हमारे मस्तिष्क के देखने की छमता पर निर्भर करता है यदि पृथ्वी को छोड़ कर हम सूर्य जैसे पिण्ड में बैठे हो तो पृथ्वी एक प्रकार के विकरण के अतिरिक्त और कुछ न दिखाई देगी इसलिए स्थान भी वस्तुओ की संरचना का सापेछ रूप है उसकी यथार्तता से परम अवस्था पर ही हो सकती है जहाँ तक गति की बात है उसका ज्ञान भी हमारी सापेछ बुद्धि का ही परिडाम है अभी हम कहते है की हमारा कमरा स्थिर है ऐसा कहने का हमें इस लिए अधिकार है क्योकि पृथवी के साथ साथ हमारा कमरा भी घूम रहा है। यदि एक स्थान पर दो गाड़िया एक ही गति और एक ही दिशा में दौड़ रही हो तो दोनों गाड़ियों के सवार अपने आप को स्थिर अनुभव करेंगे किन्तु एक गाड़ी 45 किलोमीटर की गति से पूरब की ओर तथा दूसरी गाड़ी इसी गति से पश्चिम की ओर जा रही है तो दोनों गाड़िया जिस स्थान पर साथ साथ होंगी वहां एक दूसरे की गति 10 किलोमीटर अनुभव होगी इससे यह सिद्ध होता है की गति भी एक परम गति की सापेछ है क्योकि अभी हमने अनुभव किया की समान गति से चलने वाली गाड़ियों पर बैठे रहने के बावजूद भी एक बार अपने को स्थिर और एक बार दुगनी गति का मान होता है।
पदार्थो के कारण के सम्बन्ध में भी हम पूर्णतया तथा सापेछ है थोड़े से तत्व चाहे उन्हें पृथ्वी ,जल और आकाश कहे या हाइड्रोज़न ,ऑक्सीजन या कोबाल्ट कहे ,इन्ही से मिलजुल कर भौतिक पदार्थो का बनना बिगड़ना जारी रहता है हमारे कोई भी कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थ विभिन्न रासायनिक तत्वों की परस्पर रासायनिक क्रिया का ही परिडाम होते है। परन्तु जब हम पदार्थो के अंतिम टुकड़े 'परमाणु 'की संरचना ,जो रासायनिक क्रिया में भाग लेता है पर विचार करते तब पाते है की सम्पूर्ण पदार्थो में केवल आवेश का अंतर होता है अन्यथा मूल भुत तत्वा कोई और ही है पदार्थ शक्तियो के परिवर्तित रूप है इसी तरह शक्तियों की भी एक अंतिम स्तिथि से होना चाहिये। इसका आभास प्रकाश की क्वाण्टम थियूरी से होता है।
* अर्थात संसार का कारण भौतिक नहीं कोई परमतत्व है*
उस परम अवस्था को कैसे अनुभव करे ? जब आईन्स्टीन से यह प्रश्न किया गया तो उनका जवाब था कि हम समय ,स्थान ,गति एवं कारण सापेछ अवस्था से यदि अपने मस्तिष्क को ऊपर उठा दे तो उस परम अवस्था की अनुभूति कर सकते है हमारी सापेछ अवस्था की अनुभूति ही माया है किन्तु हम इन चारो से ऊपर उठकर संसार का अनुभव करे तो अंतिम सत्य की अनुभूति हो सकती है।मनुष्य के शरीर में इस लोक से सम्बंधित सहस दल चक्र या सहस्रार है यह कपाल में ऊपर की तरफ एक गड्ढे जैसा होता है जिसके ऊपर चमड़ी चढ़ी होती है बच्चों में यह चक्र बहुत आसानी से देखा जा सकता है इसमें स्पन्दन होता रहता है यहां ध्यान लगाने पर ऐसा लगता है जैसे कमल की हज़ारों पंखुड़िया चारों तरफ एक चक्र में व्यवस्थित है , इसलिए इसका नाम सहस्रदल चक्र रखा गया है। मनुष्य शरीर में मनुष्य - लोक ,देवलोक तथा ब्रहम लोक के संवाद केवल सहस्रचक्र के द्वारा ही प्रवेश करते है और इन लोको के लिए यही से संवाद भेजे जा सकते है यह अंतिम चक्र है जिसके सक्रिय होने पर मनुष्य के शरीर में स्थित आत्मा शरीर के बाहर निकलने की तैयारी करने लगती है जो आत्माय अमरतत्वा प्राप्त कर लेती है उन्हें ब्रह्म शब्द से सम्बोधित किया जाने लगता है जैसे ही सहस्रार चक्र सक्रिय होता है वैसे ही उस व्यक्ति के चारो तरफ हज़ारों या अनजाने रूप में जो भी सम्पर्क में आ जाता है वह कारण न जानते हुवे भी आनन्द विभोर हो जाता है। पलीते में लगे आग की तरह जैसे ही सहस्रार चक्र ,सक्रिय होना प्रारम्भ करता है , वैसे ही अंत तक स्वतः ही पहुँचता जाता है बीच में यह क्रिया धारक के चाहने पर भी नहीं रुक सकती। प्रारम्भ में तो सहस्रार चक्र में पायी जाने वाली कमल की पंखुड़ियों जैसे संरचनाव से सुगन्ध निकलती है धीरे धीरे स्वतः ही कमल की लाल पंखुडिया दीपक जैसे आकार में बदलती जाती है जिनमे घी जैसा पदार्थ भरा रहता है और जलती हुई बाती की सहायता से मन्द ,शीतल एवं सात्विक प्रकाश फैलने लगता है ,जो अत्यन्त ही मनोहारी लुभावना लगने लगता है इस लोक या परलोक की कोई भी वस्तु या उपलब्धि आनन्दित रहने की प्रक्रिया में अन्तर नहीं ला सकती - देवतागड़ भी स्तुति करने लगते है।
यद्यपि कि इससे भी वह अछूता ही रहता है क्योकि इस प्रक्रिया से धारक का सम्पर्क ब्रह्मलोक से हो जाता है जहां आनन्द के सिवा और कोई चीज़ है ही नहीं जब ये दिव्यात्माये ईश्वर की मर्जी से लोक कल्याण का कार्य करने के लिए तैयार होती है तभी कोई अन्य भाव इन्हें स्पर्श कर पाते है धीरे धीरे प्रकाशमान दीपक अनन्तकाल तक , जब तक की ईश्वर की इच्छा होती है तब तक जलते रहते है और अन्त में सम्पूर्ण दीपक ,सम्पूर्ण शरीर तथा अन्य अस्तित्वा की वस्तुवे सुच्छमाती सूछ्म रेणु नामक अत्यंत छोटे कड़ो में बदलकर ईश्वर स्वरुप हो जाते है ब्रहम स्तर की दिव्यात्माओँ को भी अपने रहने के अस्तित्वा का ज्ञान रहता है और जैसे ही सम्पूर्ण अस्तित्वा समाप्त हुवा ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है या यो कहाँ जाय कि ईश्वर में मिल जाता है या कहे ईश्वर हो जाता है।
ब्रह्मलोक में तंत्र ,मंत्र और यंत्र ,पूजा - पाठ ,भजन - कीर्तन ,भोग -उपभोग ,भक्ति - ज्ञान ,वैराग्य इत्यादि सभी असरहीन है उपर्युक्त उपायों या तथ्यों से ब्रहमलोक का स्पर्श भी असम्भव है यहां तक की ईश्वर की स्तुति गाने वाले गायत्री मंत्र की पहुंच भी केवल देवलोक तक ही सिमित होती है। हमारे मस्तिष्क का लगभग तीन प्रतिशत भाग चेतन ,लगभग सात प्रतिशत भाग अचेतन तथा नब्बे प्रतिशत भाग सुसुप्त अवस्था में रहता है।
सुषुप्त इसलिए कहना पड़ता है क्योकि इसके बारे में हमे किसी प्रकार की जानकारी नहीं है चेतन मस्तिष्क से दैनिक क्रियाएँ ,अचेतन से असाधारण क्रियाए और सुषुप्त से विशेष क्रियाए सम्पन्न होती है। अधिकांश पर लौकिक क्रियाए विशेष ही मानी जाती है जैसे विभिन्न जन्मो के संस्कार बिज़ रूप में संगृहीत रहते है ये संस्कार पिछले और इस जन्म में किये गए कर्मो के सूछ्म रूप होते है। इन्ही के अनुसार ही अगला जन्म प्रेरित होता है ,जैसे एक व्यक्ति धन लोलुप होता है जबकि दूसरा व्यक्ति धन से निस्पृह होता है जबकि दोनों के मस्तिष्क में वही सफ़ेद और भूरे पदार्थ होते है यह भिन्न ता संस्कार के द्वारा ही होती है धन से निस्पृह व्यक्ति पिछले किन्ही जन्मो में धन से तृप्त रह चूका होगा। वही तृप्ति का संस्कार बिज़ रूप में संगृहीत रहता है। संस्कार का निरूपण ,रखरखाव और उचित समय पर अभिव्यक्ति दिव्यात्माओ द्वारा ही सम्पादित होता है इसलिए तो यहां बेईमानी ,लालच या अन्य कोई भी प्रयास सफल नहीं होता है देवलोक तक पूजापाठ ,भजन -भाव ,मंत्र - तंत्र तथा अन्य विधियों द्वारा परिवर्तन संभव हो जाता है देवता प्रस्न या नाराज होकर वरदान या श्राप देते है इनकी सहायता से जीवन में थोड़ा बहुत परिवर्तन आ जाता है यह कार्य भी देवगडो द्वारा ब्रह्म की इच्छा अनुसार संस्कार का फल प्रदान करने के लिए कराया जाता है इस प्रकार कोई भी आत्मा अपने संस्कारो का भोग किये बिना बच नहीं सकती।
ब्रह्मलोक में समय होता ही नहीं वहां पर एक सेकण्ड और करोड़ वर्ष में कोई अंतर नहीं है सभी दिव्यात्माऐं समय की सीमा से परे होती है समय का मूल्यांकन देवलोक तक ही होता हैप्रत्येक देवता की अपनी एक आयु होती है वे उससे ज्यादा या कम नहीं जीवित रह सकते है क्योकि उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। दिव्यात्माओं का जीवन अनन्त होता है ये ईश्वर की मर्जी के मुताबिक जीती है और विरोहित हो जाती है ये चाह कर भी निचे के लोको में नहीं जा सकती। जरूरत भी नहीं पड़ती क्योकि उनके और ईश्वर के बीच में केवल एक पार दर्शक भर रह जाता है। आर पार की चीजे भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है।
चुकी ईश्वर सर्वव्यापी है इसलिए प्रकारान्तर (एक तरह )से भी सर्वव्यापी ही हो जाती है किन्तु आवश्य्कता पड़ने पर सभी देवगण नीचे के विभिन्न लोको में शरीर धारी के रूप में जा सकते है। जैसे रामावतार में अधिकांश बन्दर - भालू और कृष्णा वतार में अधिकांश गोप और गोपियाँ ,देवी और देवताव के ही प्रतिरूप थे। देवी और देवता अपने अलौकिक गुणों युक्त होते है तभी तो ऐसे -2 कार्य कर डालते है जो शरीर धारी नहीं कर पाते है। समय हीनता या समय निरपेछता की कल्पना हम आप नहीं कर सकते क्योकि जन्म से लेकर मृत्यु तक हम सभी समय सापेछ जिंदगी जीते है समाधी की चरम अवस्था में ही उसकी अनुभूति हो सकती है सही मानेंगे तो आनन्द समय रहित जीवन में ही फलित होता है कुछ बनने की इच्छा समाप्त हो जाना ही ब्रह्मतत्व है।
यहाँ तक की ईश्वर को प्राप्त करने या बनाने की इच्छा भी ब्रह्म बन्ने में बाधक है। ये ब्रह्म सृष्टि क्या ,सृष्टि उत्पन्न करने वाले ,पालन करने वाले और संहार करने वाले को भी पैदा करने और नष्ट करने में सछम होते है ये हजारों योनियों के समाप्त होने के बाद भी जस के तस पड़े रहते है ये देवताव के तरह सबका शुभ करने के लिए भी उतावले नहीं रहते क्योकि इनके स्मरण मात्रा से ही सभी को सही रास्ते का भान हो जाता है।
इस लोक में भी दैत्य होता है ब्रह्मतत्व की अंतिम अवस्था आते आते सभी सकारात्मक और नकारात्मक तत्व अपनी चरम अवस्था में पहुंच जाते है एकरात्मक तत्व को शिव और नकारात्मक तत्व को शक्ति कहा जाता है साधना की पराकाष्ठा पर मनुष्य के शरीर में सहस्त्रार चक्र में शिव शक्ति दर्शनीय रूप में उपस्थित हो जाते है शिव अर्थात कल्याणकारी ,शक्ति अर्थात ऊर्जा ,इस प्रकार ऊर्जा यहाँ केवल कल्याण कारी कार्यो के लिए होती है।
यही कारण है कि यहां पर पापी ,पुण्यात्मा ,सत्वरज एवं तम ईश्वर ,जीव इत्यादि का भेद मिट जाता है एक मात्र भेद रह जाता है ,सकारात्मक तत्व शिव के रूप में और नकारात्मक तत्व शक्ति के रूप में - जैसे ही यह भेद समाप्त होता है। आगे अनन्त तक कुछ भी नहीं होता। देव्त जब तक रहता है तब तक संसय बना रहता है अर्द्ध नारीश्वर की कल्पना किसी धर्म में नहीं है। अर्द्ध नारीश्वर में आधा भाग पुरुष और आधा भाग नारी का होता है। यह दो या एक बनने की प्रक्रिया ही पहली अवस्था है कभी पुरुष के रूप में कभी स्त्री के रूप में तथा कभी अर्ध नारीश्वर के रूप में दिव्यात्मा दिखाई पड़ती है। उसी का प्रतिरूप शिवलिंग बनाया गया है।
पुरुष और स्त्री मिलकर जो रचना का कार्य करते थे उससे अनन्त गुणा सम्भावना वाला एक में मिल जाने के बाद हो गया। लौकिक जगद में भी इसका एक उदाहरण है रज और वीर्य के एक एक अणु अलग अलग एक भी नहीं है और न ही एक भी बनाने की छमता रखते है।किन्तु जब ये आपस में मिल जाते है तब भ्रूण में बदल जाते है और भ्रूण कम से कम एक की रचना तो करता ही है आवश्यकता पड़ने पर दो,चार,दस,बीस ,हजार ,लाख - करोड़ या अनन्त भी बना सकते है भ्रूण से बनने वाली प्रत्येक कोशिका एक एक जीव पैदा करने में सछम होती है इसी तरह जब तक सकारात्मक और नकारात्मक तत्व अलग -2 है तब तक वे एक भी बनाने में सछम नहीं है। और जैसे ही वे एक बनतेहै ,उनमे ईश्वर सकारात्मक या नकारात्मक रूप में आ जाता है और फिर वे सृस्टि क्या सृष्टियो को बनाने वालो को पैदा करने में सछम हो जाते है।
विज्ञानं भी एक एक अणु दोनों को मिलाने के बाद ही किसी रूप या आकार दे सकता है।
स्थूल लोक से लेकर देवलोक तक यह सामान्य नियम है कि पहले शक्ति अर्जित की जाती है बाद में उसका उपयोग होता है जब की ऊर्जा अच्छे या बुरे कार्यो में होगी इसकी गारण्टी नहीं होती।स्थूल लोक में भोजन से शक्ति प्राप्त की जाती है आपने देखा होगा की लौकिक जगत में जहाँ भी भोजन और पानी पर्याप्त मात्रा में होंगे वहां जीवो की संख्या ,शारीरिक और मानसिक ताकत बढ़ जाती है प्रेतलोक में मृत आत्माओ के लिए श्राद ,तर्पण ,एवं पिण्डदान इत्यादि होता है जबकि सिर्फ उनके लिए प्राथर्ना कायदे से करना चाहिए क्योकि वह स्थूललोक नहीं है जो भी देंगे उनको मिल जायगा। भारत जैसे देश में जहां इस तरह के कार्य होते है प्रेतलोक की आत्माये सक्रीय होती है जो मनुष्यो को लाभ और हानि पहुँचाती है। यूरोपीय देश ,अरब देश तथा अन्य जगहों में ऊर्जा के अभाव में प्रेतआत्मायें निष्क्रिय एवं बलहीन हो जाती है इस प्रकार योरोपीय देशो में प्रेतलोक निष्क्रिय होने से आगे की धार्मिक यात्रा रुक जाती है जैसे कोई महत्वा पूर्ण पुल धवस्त होगया है यही कारण है की जिन आत्माओ को आगे की यात्रा जारी रखनी होती है वे भारत में ही जन्म लेती है। सूछमलोक धनात्मक और ऋणात्मक कणो का बना होता है उन सभी क्रियाओ से सूछ्म शरीर की ताक़त बढ़ती है जिनसे शरीर में उपस्थित तत्व धनात्मक और ऋणात्मक कणों म बदल जाते है -उपवास ,व्रत ,प्राणायाम और ध्यान इत्यादि से शुद्धि करण की प्रक्रिया तेज होती है।
तभी तो ध्यानस्थ व्यक्तियों के चारो ओर प्रभामण्डल दिखलाई पड़ने लगता है।
वाशना लोक में प्रेम क्रोध इत्यादि विभिन्न भावनाओ से ऊर्जा मिलती है जबकि देवलोक में ऊर्जा का स्रोत उपकार है। इन सभी लोको में पहले ऊर्जा प्राप्त की जाती है बाद में उसका उपयोग होता है ऊर्जा स्त्री वाचक और पात्र जहां ऊर्जा संचित होती है उसे पुरुष वाचक माना जाता है। इसलिए पहले स्त्री का बाद में पुरुष का नाम रखा जाता है। जैसे सीता राम ,राधेश्याम ,गौरीशंकर। .... इत्यादि।
किन्तु ब्रह्म्लोक में यह प्रक्रिया उलट रहती है जैसे - शिव शक्ति पहले पुरुष वाचक शब्द बाद में स्त्री वाचक शब्द इसका बहुत ही गहरा कारण है शक्ति पहले प्राप्त कर लेने के बाद उसका उपयोग सही या गलत दोनों होने की सम्भावना बनी रहती है यहाँ पहले यह निश्चित किया जाता है कि ऊर्जा कल्याणकारी कार्यो में ही खर्च की जायगी। तभी ऊर्जा प्राप्त हो पाती है।
इसलिए पहले पुरुष वाचक शब्द बाद में शक्ति स्त्री वाचक रखा गया है। इस प्रकार शिव शक्ति हमेशा कल्याणकारी कार्य ही करते है। कुछ लोग शिव शक्ति और गौरी शंकर को एक ही मानते है यह भ्रह्म है। गौरी शंकर देव स्तर की आत्माये है ये प्रश्न या नाराज होकर वरदान या श्राप दे सकते है। सबका उपकार करने के लिए लालायित रहते है। भजन - पूजन ,चढ़ावा इत्यादि से प्रसन्न रहते है यह संहार का कार्य कर सकते है। जबकि शिव शक्ति ब्रहम स्तर की आत्माये है ये प्रशन्न ओऱ नाराज नहीं होते है। भजन पूजन इत्यादि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता ये कल्याण का कार्य करते है। इस प्रकार दोनों स्तर की आत्माओ में गुणात्मक अंतर है ब्रहम लोक में ऊर्जा का स्रोत सबका कल्याण या ब्रह्माण्ड स्वयं है जब तक ईश्वर की इच्छा ब्रह्माण्ड बनाये रखने की होती है तब तक शिव शक्ति रूप में विद्यमान है अन्यथा तिरोहित होकर ईश्वर में ही मिल जाते है।
*अंत में एक जटिल प्रश्न के साथ ब्रह्मलोक की यात्रा समाप्त की जाय *
जब सृस्टि उत्प्न्न हुई तब सभी आत्माये ईश्वर से निकलकर अस्तित्वा में आई। इस प्रकार सभी पवित्र शुद्ध और सवतंत्र हुई जैसे ही ये आत्माये ईश्वर से अलग होती है अधिकांश तो तो ईश्वर का स्मरण करते हुवे पुनः उसी में मिल जाती है। केवल कुछ आत्माये ईश्वर द्वारा पैदा किये सम्मोहन में फस जाती है ब्रह्माण्ड में जितनी भी शरीर धारी और आसुरी आत्माये उपस्थित है ये सभी भटकी हुई सम्मोहित आत्माये है।
इसलिए मनीषी जन पाप पुण्य के चक्र में नहीं पड़ते वे साछी भाव में पाप पुण्य दोनों को ही निस्पृहय भाव से देखा जाता है तभी ईश्वर की माया स्पस्ट दिखलाई पड़ती है ईश्वर कुछ को क्यों माया या सम्मोहन में डालता है इसे छुद्र बुद्धि या तर्क द्वारा देखने पड़ बड़ा अजीब लगता है। लगता है ईश्वर भी मायावी है और दुसरो से पाप कर्म करवाने में उसे आनन्द आता है इस प्रकार दुसरो के दुःख में सुखी होने वाले को क्या कहाँ जाय। . ?
* किन्तु रुकिए पहले आप अपनी पात्रता देखिये की इस प्रश्न के उत्त्तर के लिये अपनी पात्रता विकसित हो गयी है की नहीं *
:- आइये हम आप सभी काँटे से काँटा निकालने का भ्रम पाले ईश्वर द्वारा पैदा किये गये सम्मोहन को ईश्वर द्वारा ही निकालने का उपक्रम सोचे किन्तु हमेशा ध्यान रहे कि सूत्रधार तो वहीं है जब सूत्र धार ,सूत्र और कठ पुतली तीनों एक ही तत्व की बनी देखाई देने लगे तब आगे कुछ और देखने की आवश्यकता ही नहीं ,कुछ और आगे ,कुछ भी दिखाई ही नहीं पड़ेगा।
क्योकि ईश्वर तो अनन्त है निराकार है।
**********Only one true - Zero is true - Infinitive is true *********
✍️ धन निराकार जी (आप का शरद ) 🌈
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